बताता है मुझे आईना कैसी बे-रुख़ी से
बताता है मुझे आईना कैसी बे-रुख़ी से
कि मैं महरूम होता जा रहा हूँ रौशनी से
किसे इल्ज़ाम दूँ मैं राएगाँ होने का अपने
कि सारे फ़ैसले मैं ने किए ख़ुद ही ख़ुशी से
हर-इक लम्हे मुझे रहती है ताज़ा इक शिकायत
कभी तुझ से कभी ख़ुद से कभी इस ज़िंदगी से
मुझे कल तक बहुत ख़्वाहिश थी ख़ुद से गुफ़्तुगू की
मैं छुपता फिर रहा हूँ आज अपने-आप ही से
वो बे-कैफ़ी का आलम है कि दिल ये चाहता है
कहीं रू-पोश हो जाऊँ अचानक ख़ामुशी से
सुकून-ए-ख़ाना-ए-दिल के लिए कुछ गुफ़्तुगू कर
अजब हंगामा बरपा है तिरी लब-बस्तगी से
तअ'ल्लुक़ की यही सूरत रहेगी क्या हमेशा
मैं अब उक्ता चुका हूँ तेरी इस वारफ़्तगी से
जो चाहे वो सितम मुझ पर रवा रक्खे ये दुनिया
मुझे यूँ भी तवक़्क़ो अब नहीं कुछ भी किसी से
तिरे होने न होने पर कभी फिर सोच लूँगा
अभी तो मैं परेशाँ हूँ ख़ुद अपनी ही कमी से
रहा वो मुल्तफ़ित मेरी तरफ़ और इन दिनों में
ख़ुद अपनी सम्त देखे जा रहा बे-ख़ुदी से
कोई ख़ुश-फ़िक्र सा ताज़ा-सुख़न भी दरमियाँ रख
कहाँ तक दिल को बहलाऊँ मैं तेरी दिलकशी से
करम तेरा कि ये मोहलत मुझे कुछ दिन की बख़्शी
मगर मैं तुझ से रुख़्सत चाहता हूँ आज ही से
वो दिन भी थे तुझे मैं वालिहाना देखता था
ये दिन भी हैं तुझे मैं देखता हूँ बेबसी से
अभी 'इरफ़ान' आँखों को बहुत कुछ देखना है
तुम्हें बे-रंग क्यूँ लगने लगा है सब अभी से
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