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ग़ज़ल
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
चोर खिंचवाए है इस अहद में कोतवाल की खाल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
अब तो ता'बीर भी बर-अक्स नज़र आती है
गुम हुए जाने कहाँ ख़्वाब सुहाने वाले
सय्यद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी
ग़ज़ल
कह दोगे कि है तज्रबा इस बात के बर-‘अक्स
क्यूँकर ये कहें ज़ुल्म-ओ-सितम सह नहीं सकते
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
हम मुसलमानों से याँ तक तो ये हिन्दू बर-अक्स
कि कभी ख़त भी जो करते हैं तो अरक़ाम उल्टा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मैं लिए फिरती हूँ होंटों पे गुलिस्तान-ए-अदब
इस के बर-अक्स है आबाद ये जंगल मुझ में
फ़रीदा आलम फ़हमी
ग़ज़ल
होवें बर-अक्स भला क्यूँ न वो अग़्यार से ख़ुश
किसी मा'शूक़ को देखा न वफ़ादार से ख़ुश