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ग़ज़ल
बिसात-ए-ख़ाक भी तपाँ ख़ला भी है धुआँ धुआँ
बस इक अज़ाब-ए-नार है ज़मीं से आसमान तक
राग़िब मुरादाबादी
ग़ज़ल
बदन के लुक़्मा-ए-तर को हराम कर लिया है
कि ख़्वान-ए-रूह पे जब से तआम कर लिया है
अमीर हम्ज़ा साक़िब
ग़ज़ल
बदन के लुक़्मा-ए-तर को हराम कर लिया है
कि ख़्वान-ए-रूह पे जब से त'आम कर लिया है
अमीर हम्ज़ा साक़िब
ग़ज़ल
चारों तरफ़ हैं ख़ार-ओ-ख़स दश्त में घर है बाग़ सा
चोटी पे कोहसार की जलता है क्या चराग़ सा