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ग़ज़ल
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
आलम-ए-हुस्न ख़ुदाई है बुतों की ऐ 'ज़ौक़'
चल के बुत-ख़ाने में बैठो कि ख़ुदा याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
'ग़ालिब' ओ 'शेफ़्ता' ओ 'नय्यर' ओ 'आज़ुर्दा' ओ 'ज़ौक़'
अब दिखाएगा ये शक्लें न ज़माना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
दिल-ए-बद-ख़्वाह में था मारना या चश्म-ए-बद-बीं में
फ़लक पर 'ज़ौक़' तीर-ए-आह गर मारा तो क्या मारा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
क़ीमत में जिंस-ए-दिल की माँगा जो 'ज़ौक़' बोसा
क्या क्या न उस ने हम को खोटी-खरी सुनाई
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
कश्ती सवार-ए-उम्र हूँ बहर-ए-फ़ना में 'ज़ौक़'
जिस दम बहा के ले गया तूफ़ान बह गया
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
दो घड़ी आओ मिल आएँ किसी 'ग़ालिब' से 'क़तील'
हज़रत-ए-'ज़ौक़' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
क्या जाने दो घड़ी वो रहे 'ज़ौक़' किस तरह
फिर तो न ठहरे पाँव घड़ी दो घड़ी के बाद
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
है क़त्अ रह-ए-इश्क़ में ऐ 'ज़ौक़' अदब शर्त
जूँ शम्अ तू अब सर ही के बल जाए तो अच्छा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
थे तुम्हीं निकले जो उस दाम-ए-बला से ऐ 'ज़ौक़'
वर्ना थे पेच में उस ज़ुल्फ़ के आए तो सही
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
नहीं है कम ज़र-ए-ख़ालिस से ज़र्दी-ए-रुख़्सार
तुम अपने इश्क़ को ऐ 'ज़ौक़' कीमिया समझो
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
सुराग़ उम्र-ए-गुज़िश्ता का कीजिए गर 'ज़ौक़'
तमाम उम्र गुज़र जाए जुस्तुजू करते
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
क्या हुआ ऐ 'ज़ौक़' हैं जूँ मर्दुमुक हम रू-सियाह
लेकिन आँखों में समाना कोई हम से सीख जाए
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
करें जुदाई का किस किस की रंज हम ऐ 'ज़ौक़'
कि होने वाले हैं हम सब से अन-क़रीब जुदा