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ग़ज़ल
पीवे मेरा ही लहू मानी जो लब उस शोख़ के
खींचे तो शंगर्फ़ से ख़ून-ए-शहीदाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
सुर्ख़ है रूमाल-ए-शाली उस के तहतुल-जंग तक
मुसहफ़ रुख़्सार पर या जदवल-ए-शंगर्फ़ है
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
मैं हुआ हूँ जिस पे आशिक़ ये शगर्फ़ माजरा है
कि मिरे इवज़ लगा है उसे इज़्तिराब उल्टा