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ग़ज़ल
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ग़म-ए-इश्क़ रह गया है ग़म-ए-जुस्तुजू में ढल कर
वो नज़र से छुप गए हैं मिरी ज़िंदगी बदल कर
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
कहाँ जाम-ए-ग़म की तल्ख़ी कहाँ ज़िंदगी का दरमाँ
मुझे वो दवा मिली है जो मिरी दवा नहीं है