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ग़ज़ल
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है
तिरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं