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ग़ज़ल
ना ये लाल जटाएँ राखें ना ये अंग भबूत रमाएँ
ना ये गेरू-रंग फ़क़ीरी-चोला पहन पहन इतराएँ
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
इश्क़ ने ऐसा चोला बदला हुस्न ने ऐसा बदला रूप
जिस के आगे इस कल-युग में कल के राँझे हीर सवाल
सय्यद अहमद सहर
ग़ज़ल
सुना है कीचड़ के सूखने पर हयात चोला बदल रही थी
शजर से नीचे उतर के ख़िल्क़त नहीफ़ क़दमों पे चल रही थी