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ग़ज़ल
क्या क़यामत है कि 'ख़ातिर' कुश्ता-ए-शब थे भी हम
सुब्ह भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए
ख़ातिर ग़ज़नवी
ग़ज़ल
जाने किस की बद-नज़र ने हश्र बरपा कर दिया
मूनिस-ओ-ग़म-ख़्वार सब दुश्मन में गर्दाने गए
मक़सूद अनवर मक़सूद
ग़ज़ल
ज़िंदगी-भर 'अस्र' गो रिंदों के हम-मशरब रहे
फिर भी दीवानों में फ़रज़ाने से गर्दाने गए
मोहम्मद नक़ी रिज़वी असर
ग़ज़ल
मालिक से और मिट्टी से और माँ से बाग़ी शख़्स
दर्द के हर मीसाक़ से रु-गर्दानी करता है