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ग़ज़ल
झुका दी क़ुदसियों ने बे-तकल्लुफ़ गर्दन-ए-ताअ'त
ज़हे-रुत्बा कफ़-ए-ख़ाक-ए-दर-ए-वाला-ए-दौलत का
बयान मेरठी
ग़ज़ल
है कफ़-ए-ख़ाक मिरी बस-कि तब-ए-इश्क़ से गर्म
पाँव वाँ जिस का पड़े आबला-पा होता है
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ल
थी सहर 'मारूफ़' शाख़-ए-सर्व-ए-गुल ख़म जा-ब-जा
हर कफ़-ए-ख़ाक-ए-चमन गोया इबादत-ख़ाना था
मारूफ़ देहलवी
ग़ज़ल
सुर्ख़ी के सबब ख़ूब खिला है गुल-ए-लाला
आरिज़ में लबों में कफ़-ए-दस्त ओ कफ़-ए-पा में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
'शान' बे-सम्त न कर दे तुम्हें सहरा-ए-हयात
ज़ेहन में उन के नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा रहने दो
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
आज मगर इक नार को देखा जाने ये नार कहाँ की है
मिस्र की मूरत चीन की गुड़िया देवी हिन्दोस्ताँ की है
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हिना तेरे कफ़-ए-पा को न उस शोख़ी से सहलाती
ये आँखें क्यूँ लहू रोतीं उन्हों की नींद क्यूँ जाती
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
सुब्ह कू-ए-यार में बाद-ए-सबा पकड़ी गई
या'नी ग़ीबत में गुलों की मुब्तला पकड़ी गई