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ग़ज़ल
नहीं मालूम कि मातम है फ़लक पर किस का
रोज़ क्यूँ चाक गिरेबान-ए-सहर होता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
उस ने जब चाक किया वज्द में पैराहन-ए-जाँ
मैं ने भी नज़्र-ए-जुनूँ अपना गिरेबान किया
सुल्तान अख़्तर
ग़ज़ल
अब तलक ग़ुंचे की गर्दन है झुकी ख़जलत से
उस ने देखी थी तिरी गुए-गिरेबान कहीं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बस-कि रोका मैं ने और सीने में उभरीं पै-ब-पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरेबाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो जो अभी इस राहगुज़र से चाक-गरेबाँ गुज़रा था
उस आवारा दीवाने को 'जालिब' 'जालिब' कहते हैं
हबीब जालिब
ग़ज़ल
मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने
ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैं ने
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
हम से कहते हैं चमन वाले ग़रीबान-ए-चमन
तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने वीराने का नाम