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ग़ज़ल
ज़िंदगी रेत के ज़र्रात की गिनती थी 'नदीम'
क्या सितम है कि अदम भी वही सहरा निकला
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
याद आ ही जाती है अक्सर दिल-ए-बर्बाद की
यूँ तो सच है चंद ज़र्रात-ए-परेशाँ कुछ नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
अभी ख़ुर्शेद जो छुप जाए तो ज़र्रात कहाँ
तू ही पिन्हाँ हो तो फिर कौन भला पैदा हो