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ग़ज़ल
बज़्म में तकते हैं मुँह उस का खड़े और वो शोख़
न उठाता है किसी को न बिठाता है हमें
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
इश्क़ पहले तो हसीं मंज़र में लाता है हमें
बाद में बे-हद घने जंगल दिखाता है हमें
राघवेंद्र द्विवेदी
ग़ज़ल
दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे
फिर भी इक शख़्स में क्या क्या नज़र आता है मुझे
शहरयार
ग़ज़ल
सितम ये है कि उन का जौर-ए-पैहम कम नहीं होता
मिज़ाज-ए-इश्क़ इस पर भी कभी बरहम नहीं होता