इबादतों को मिरी रतजगा समझता है
इबादतों को मिरी रतजगा समझता है
वो सच्चे प्यार को भी फ़ल्सफ़ा समझता है
मैं उस को दिल से ग़ज़ल की रदीफ़ मानती हूँ
मुझे वो शे'र का इक क़ाफ़िया समझता है
तुम्हें तो सिर्फ़ ये ख़्वाहिश कि रात रौशन हो
है कर्ब जलने का ये बस दिया समझता है
मैं अपने ग़म को छुपा कर जो थोड़ा हँसती हूँ
वो ना-समझ इसे मेरी अदा समझता है
हमारी रूह पे महके हैं फूल ज़ख़्मों के
ज़माना जिन को गुलों की क़बा समझता है
दिखाई देते हैं संजीदगी के नक़्श-ओ-निगार
हमारी शोख़ियाँ कब आइना समझता है
क़दम क़दम पे बिछाता है ठोकरें 'सीमा'
थकान पाँव की कब रास्ता समझता है
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