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ग़ज़ल
मिरी झोली में वो लफ़्ज़ों के मोती डाल देता है
सिवाए इस के कुछ माँगूँ तो हँस कर टाल देता है
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है
यूँ नहीं जैसे जिस्म को पैराहन से अलग कर रक्खा है
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
नफ़ाज़-ए-नज़्म पुर-इसरार है ऐसा नहीं लगता
गुलिस्ताँ में कोई सरकार है ऐसा नहीं लगता
अरशद अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है
वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
तमन्ना है ये आँखों की तिरा दीदार आ देखें
कभी रौज़ा तिरा या-अहमद-ए-मुख़्तार आ देखें