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ग़ज़ल
दश्त की आब-ओ-हवा ने दिया काँटों का लिबास
मैं बहारों में जो पलता गुल-ए-अह्मर होता
हैदर अली जाफ़री
ग़ज़ल
भूलने वाले फ़क़त इतना बताना है तुझे
तेरा 'अह्मर' याद से तेरी कभी ग़ाफ़िल नहीं
अनवारुल हक़ अहमर लखनवी
ग़ज़ल
याँ बादा-ए-अहमर के छलकते हैं जो साग़र
ऐ पीर-ए-मुग़ाँ देख कि है सारी दुकाँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
कहते हैं वो पाँ-ख़ुर्दा-लब याक़ूत के टुकड़े तो थे
कहलाए लेकिन आज से बर्ग-ए-गुल-ए-अह्मर भी हम
शाह नसीर
ग़ज़ल
हज़ारों क़ाफ़िले लूटे हैं जिस ने राह-ए-उल्फ़त के
दिल-ए-मासूम ने 'अह्मर' उसी को रहनुमा समझा
अनवारुल हक़ अहमर लखनवी
ग़ज़ल
हम भी खेले हैं लब-ए-शाहिद-ए-मय से 'अह्मर'
जुरआ-कश हम भी रहे हैं कभी 'ख़य्याम' के साथ
अहमर गोरखपुरी
ग़ज़ल
हज़ारों रंज-ओ-ग़म सह कर भी मैं हँसता हूँ ऐ 'अह्मर'
बशर के वास्ते है लाज़मी साबित-क़दम होना
अनवारुल हक़ अहमर लखनवी
ग़ज़ल
कुछ समझ ही में नहीं आता है 'अह्मर' इस का भेद
एक ज़ालिम के लिए क्यों हो गए बर्बाद हम