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ग़ज़ल
मोहम्मद अजमल नियाज़ी
ग़ज़ल
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
तू मिरी पहली मोहब्बत थी मिरी आख़िरी दोस्त
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
गर एक शब भी वस्ल की लज़्ज़त न पाए दिल
फिर किस उमीद पर कोई तुम से लगाए दिल
आग़ा मोहम्मद तक़ी ख़ान तरक़्क़ी
ग़ज़ल
उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है
यूँ तो कहने को सभी कहते हैं यूँ है यूँ है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे
कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे