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ग़ज़ल
मैं सह रहा हूँ जो मुद्दत से रात-दिन 'यासिर'
अब इस अज़ाब से दूरी भी मार देगी मुझे
सय्यद यासिर गीलानी
ग़ज़ल
इक क़तरा दरिया की दौलत इक क़तरा पलकों का धन
चारों तरफ़ वजूद-ए-आदम आसमान से ऊँचा है
नसीर प्रवाज़
ग़ज़ल
जब चला क़ाफ़िला यारों का सू-ए-मुल्क-ए-अदम
हमीं तय्यार हुए बाँग-ए-दरा से पहले
मुंशी शिव परशाद वहबी
ग़ज़ल
'अजब सर-गर्म-ए-कोशिश हो मुक़द्दर में जो होती है
तो हाथ इंसाँ के इक रोज़ दौलत आ ही जाती है