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ग़ज़ल
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
उड़ा ही लेता दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर से काग़ज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
लिखीं जब कातिब-ए-तक़दीर ने बंदों की तक़दीरें
मिरे हिस्से में इज्ज़ और उन के हिस्से में ग़ुरूर आया
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
शिकवा-ए-कातिब-ए-तक़दीर बजा है लेकिन
दस्त-ए-तदबीर में जब दामन-ए-तक़दीर न हो
इफ़्तिख़ार अहमद सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
तुम तो करते हो मिरी क्लिक-ए-सुख़न को पाबंद
कौन है कातिब-ए-तक़दीर-ए-वतन क्या जानो?
परवेज़ शाहिदी
ग़ज़ल
सुन लिए जो शेर 'कातिब' के बिना इक दाद के
ये गवाही दे रहा तू महफ़िल-ए-जाहिल में है
अनमोल सावरण कातिब
ग़ज़ल
काट कर दस्त-ए-दुआ को मेरे ख़ुश हो ले मगर
तू कहाँ आख़िर ये शाख़-ए-बे-समर ले जाएगा