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ग़ज़ल
ऐ सैल-ए-अश्क ख़ाना-ए-दुश्मन भी पास है
क्यों तुझ को बुग़्ज़ है मिरी दीवार-ओ-दर के साथ
रियाज़ हसन खाँ ख़याल
ग़ज़ल
रब्त है नाज़-ए-बुताँ को तो मिरी जान के साथ
जी है वाबस्ता मिरा उन की हर इक आन के साथ