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ग़ज़ल
काग़ज़ पर पेचीदा मिसरों की भर-मार लगा देते हैं
फिर दीवान-ए-मीर को तकते तकते थक कर सो जाते हैं
शब्बीर एहराम
ग़ज़ल
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
शाख़-ए-गुल है क़लम-ए-फ़िक्र तो अशआ'र हैं गुल
'अर्श' दीवान मिरा रश्क-ए-गुलिस्ताँ होगा