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ग़ज़ल
मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को
अयाँ जब हर जगह देखूँ उसी के नाज़-ए-पिन्हाँ को
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
ऐ सैल-ए-अश्क ख़ाना-ए-दुश्मन भी पास है
क्यों तुझ को बुग़्ज़ है मिरी दीवार-ओ-दर के साथ
रियाज़ हसन खाँ ख़याल
ग़ज़ल
रब्त है नाज़-ए-बुताँ को तो मिरी जान के साथ
जी है वाबस्ता मिरा उन की हर इक आन के साथ
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
न अब वो ख़ुश-नज़री है न ख़ुश-ख़िसाली है
ये क्या हुआ मुझे ये वज़्अ क्यूँ बना ली है