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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
चश्म-ए-ग़ज़ाल-ओ-हुस्न-ए-ग़ज़ल का बयाँ रहे
कुछ ऐसी बात जो पै-ए-तस्कीन-ए-ग़म तो हो
सज्जाद बाक़र रिज़वी
ग़ज़ल
फिर शाफ़े'-ए-ग़ज़ाल-ओ-ग़ज़ल पर मैं कुछ कहूँ
मिल जाएँ लफ़्ज़ ख़ूब अगर चार पाँच और