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ग़ज़ल
हमें ख़ार-ए-वतन 'गुलज़ार' प्यारे हैं गुल-ए-तर से
कि हर ज़र्रे को ख़ाक-ए-हिंद के शम्स ओ क़मर जाना
गुलज़ार देहलवी
ग़ज़ल
कितने हातिम मिले 'गुलज़ार' ज़माने में हमें
वो कि हर चीज़ के वासिफ़ थे सख़ावत के सिवा
गुलज़ार देहलवी
ग़ज़ल
हिन्द में क़ाएम रहे दाइम बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ
ये दुआ लब पर हो हर 'गुलज़ार' के दम-साज़ के
गुलज़ार देहलवी
ग़ज़ल
दिल बहुत बुलबुल-ए-शैदा का है नाज़ुक गुलचीं
फूल गुलज़ार के यूँ तोड़ कि आवाज़ न हो