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ग़ज़ल
फ़ुर्क़त में वसलत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
आशोब-ए-वहदत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
जौन एलिया
ग़ज़ल
न किसी पे ज़ख़्म अयाँ कोई न किसी को फ़िक्र रफ़ू की है
न करम है हम पे हबीब का न निगाह हम पे अदू की है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
लाख रहे शहरों में फिर भी अंदर से देहाती थे
दिल के अच्छे लोग थे लेकिन थोड़े से जज़्बाती थे
फ़रहत ज़ाहिद
ग़ज़ल
ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मुर्दा नारे लगाने वाले ज़िंदा गोश्त जला सकते हैं
इस बे-अंत हुजूम को ख़ुद से ज़ियादा डरने मत देना