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ग़ज़ल
जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी
बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाइयाँ क्या क्या
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मयस्सर आ चुकी है सर-बुलंदी मुड़ के क्यूँ देखें
इमामत मिल गई हम को तो उम्मत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
क्या जाने फिर सितम भी मयस्सर हो या न हो
क्या जाने ये करम भी करो या न कर सको
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
हमेशा चाहता है दिल कि मिल कर कीजे मय-नोशी
मयस्सर जाम-ए-मय-ए-जम-जम हमें भी हो तुम्हें भी हो