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ग़ज़ल
जनम जनम के सातों दुख हैं उस के माथे पर तहरीर
अपना आप मिटाना होगा ये तहरीर मिटाने में
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
वो रश्क-ए-ग़ैर पर रो रो के हिचकी मेरी बंध जाना
फ़रेबों से वो तेरा शक मिटाना याद आता है
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
मिटाना था उसे भी जज़्बा-ए-शौक़-ए-फ़ना तुझ को
निशान-ए-क़ब्र-ए-मजनूँ दाग़ है सहरा के दामन में
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
तुझे तो बाँध के रक्खा है नीस्ती ने 'शहाब'
तू है कि हद्द-ए-फ़ुसूँ को मिटाना चाहता है
मुस्तफ़ा शहाब
ग़ज़ल
अब तो ये शहर है इक क़ालिब-ए-बे-जाँ हमदम
कुछ यहाँ रहने की ख़ुशियाँ न मनाना हरगिज़
मीर मेहदी मजरूह
ग़ज़ल
मोहब्बत में सुकूँ जानम बड़ी मुश्किल से मिलता है
मिटाना पड़ता है ख़ुद को तभी दिल दिल से मिलता है