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ग़ज़ल
कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबाँ का 'जालिब'
चारों जानिब सन्नाटा है दीवाने याद आते हैं
हबीब जालिब
ग़ज़ल
हवा है सख़्त अब अश्कों के परचम उड़ नहीं सकते
लहू के सुर्ख़ परचम ले के मैदानों में आ जाओ
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
दश्त ओ दर बनने को हैं 'मजरूह' मैदान-ए-बहार
आ रही है फ़स्ल-ए-गुल परचम को लहराए हुए
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
हर्फ़ नहीं जाँ-बख़्शी में उस की ख़ूबी अपनी क़िस्मत की
हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वुज़ू ही सही