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ग़ज़ल
कहीं इस फूटे-मुँह से बेवफ़ा का लफ़्ज़ निकला था
बस अब ता'नों पे ता'ने हैं कि बे-शक बा-वफ़ा तुम हो
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
दस्त-ए-तलब कुछ और बढ़ाते हफ़्त-इक़्लीम भी मिल जाते
हम ने तो कुछ टूटे-फूटे जुमलों ही पे क़नाअत की
ज़ेहरा निगाह
ग़ज़ल
लफ़्ज़ तो लफ़्ज़ हैं काग़ज़ से भी ख़ुश्बू फूटे
सफ़हा-ए-वक़्त पे वो फूल खिलाए रखना