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ग़ज़ल
तिलिस्म-ए-शम्स-ओ-नुजूम-ओ-क़मर से गुज़रे हैं
दयार-ए-हुस्न की हर रहगुज़र से गुज़रे हैं
नईम हामिद अली
ग़ज़ल
शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कभी महर-ओ-माह-ओ-नुजूम से कभी कहकशाँ से गुज़र गया
मैं तिरी तलाश में आख़िरश हद-ए-ला-मकाँ से गुज़र गया
मोहम्मद अमीर आज़म क़ुरैशी
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हम इस लम्बे-चौड़े घर में शब को तन्हा होते हैं
देख किसी दिन आ मिल हम से हम को तुझ से काम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
निशान-ए-ज़ख़्म पे निश्तर-ज़नी जो होने लगी
लहू में ज़ुल्मत-ए-शब उँगलियाँ भिगोने लगी
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
ये तो सच है कि शब-ए-ग़म को सँवारा तुम ने
चश्म-ए-तर ने भी मिरा साथ निभाया है बहुत
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
सारे दिन करते हैं हम दश्त-ए-तमन्ना का सफ़र
गर्द चेहरे पे लिए शाम को घर आते हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
शब-ए-फ़िराक़ की ज़ुल्मत में ग़म के मारों का
तिरे ख़याल की ताबिंदगी ने साथ दिया