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हिसार-ए-क़र्या-ए-खूँबार से निकलते हुए

अख्तर शुमार

हिसार-ए-क़र्या-ए-खूँबार से निकलते हुए

अख्तर शुमार

MORE BYअख्तर शुमार

    हिसार-ए-क़र्या-ए-खूँबार से निकलते हुए

    ये दिल मलूल था आज़ार से निकलते हुए

    बड़ी ही देर तलक धूप मुझ को छू सकी

    तुम्हारे साया-ए-दीवार से निकलते हुए

    कि फिर से तख़्त को आना था मेरे क़दमों में

    मैं पुर-यक़ीन था दरबार से निकलते हुए

    शुआ-ए-नूर के फूटे से जाँ लरज़ती थी

    तुम्हारी गर्मी-ए-रुख़्सार से निकलते हुए

    तुम्हारे ध्यान में गुम हो गई थी महकी हवा

    हुदूद-ए-जादा-ए-गुलज़ार से निकलते हुए

    मैं लौट आया तुझे छोड़ कर मगर आधा

    वहीं रहा दर-ओ-दीवार से निकलते हुए

    फ़ज़ा में देर तलक ख़ूब जगमगाते 'शुमार'

    वो लफ़्ज़ शोख़ी-ए-गुफ़्तार से निकलते हुए

    स्रोत :
    • पुस्तक : aap saa nahi.n ko.ii (पृष्ठ 30)
    • रचनाकार : akhtar shumaar
    • प्रकाशन : ilm v irfaan publishar (2001)
    • संस्करण : 2001

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