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ग़ज़ल
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
हम तो कर्बल को ही बस दार-ए-बक़ा कहते हैं
उस की मिट्टी को सुनो ख़ाक-ए-शिफ़ा कहते हैं
असद रज़ा सहर
ग़ज़ल
क्या सुब्ह से ग़रज़ मिरी क्या शाम से ग़रज़
ऐ ख़ुश-अदा है मुझ को तिरे काम से ग़रज़