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ग़ज़ल
अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
जिस को दुश्वार मैं समझा था वो आसाँ निकला
हादी मछलीशहरी
ग़ज़ल
हयात-ओ-मर्ग का उक़्दा कुशा होने नहीं देता
वो जाने क्यूँ मुझे राज़-आश्ना होने नहीं देता
राम अवतार गुप्ता मुज़्तर
ग़ज़ल
मैं ने देखा ही नहीं जागती आँखों से कभी
कोई उक़्दा हूँ कि ख़ुद उक़्दा-कुशा हूँ क्या हूँ
अख़्तर सईद ख़ान
ग़ज़ल
ये क्या है कि मुझ पर मिरा उक़्दा नहीं खुलता
हर-चंद कि ख़ुद उक़्दा ओ ख़ुद उक़्दा-कुशा हूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
आज तो खोलने दो ता न रहे शक बाक़ी
आप का बंद-ए-क़बा उक़्दा-कुशा हो कि न हो
मोहम्मद लुतफ़ुद्दीन ख़ान लुत्फ़
ग़ज़ल
यूँ तो पर-बंद हूँ पर यार परों पर मेरे
जो गिरह तेरी है सो उक़्दा-कुशा-ए-पर्वाज़