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ग़ज़ल
तू भी 'मुनीर' अब भरे जहाँ में मिल कर रहना सीख
बाहर से तो देख लिया अब अंदर जा कर देख
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
दुनिया वालों के मंसूबे मेरी समझ में आए नहीं
ज़िंदा रहना सीख रहा हूँ अब घर की वीरानी से
मोहसिन असरार
ग़ज़ल
निगाह-ए-यार मिल जाती तो हम शागिर्द हो जाते
ज़रा ये सीख लेते दिल के ले लेने का ढब क्या है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए
जी ही जी में तिलमिलाना कोई हम से सीख जाए