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ग़ज़ल
तेरे बिन रात के हाथों पे ये तारों के अयाग़
ख़ूब-सूरत हैं मगर ज़हर के प्यालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
निकाला चाहता है काम क्या ता'नों से तू 'ग़ालिब'
तिरे बे-मेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
एक वा'दा है किसी का जो वफ़ा होता नहीं
वर्ना इन तारों भरी रातों में क्या होता नहीं
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
तारों की आँख भी भर आई मेरी सदा-ए-दर्द पर
उन की निगाहें भी तिरा नाम बता के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
वक़्त ने ज़ेहन में धुँदला दिए तेरे ख़द-ओ-ख़ाल
यूँ तो मैं टूटते तारों का धुआँ तक देखूँ