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नज़्म
ज़िंदगी की ओज-गाहों से उतर आते हैं हम
सोहबत-ए-मादर में तिफ़्ल-ए-सादा रह जाते हैं हम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तो ऐसे लगता था जैसे दिल में उतर रही हो
कुछ इस तयक़्क़ुन से बात करती थी जैसे दुनिया
अमजद इस्लाम अमजद
नज़्म
कभी जो चंद सानिए ज़मान-ए-बे-ज़मान में आ के रुक गए
तो वक़्त का ये बार मेरे सर से भी उतर गया