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नज़्म
ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो
ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो
हबीब जालिब
नज़्म
हल पे दहक़ाँ के चमकती हैं शफ़क़ की सुर्ख़ियाँ
और दहक़ाँ सर झुकाए घर की जानिब है रवाँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
सीनों में लाल अंगियाँ और लाल कुर्तियाँ हैं
नज़रें भी बदलियाँ हैं दिल में भी सुर्तियाँ हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
पत्थरों को तोड़ते हैं आदमी के उस्तुख़्वाँ
संग-बारी हो तो बन जाती है हिम्मत साएबाँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
गुज़रते दिन हयात-ए-नौ की सुर्ख़ियाँ लिए हुए
तमाम क़ौल और क़सम निगाह-ए-नाज़-ए-यार थी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
फ़रेब खाए हैं रंग-ओ-बू के सराब को पूजता रहा हूँ
मगर नताएज की रौशनी में ख़ुद अपनी मंज़िल पे आ रहा हूँ
जमील मज़हरी
नज़्म
तू और रंग-ए-ग़ाज़ा-ओ-गुलगूना-ओ-शहाब
सोचा भी किस के ख़ून की बनती हैं सुर्ख़ियाँ