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नज़्म
धरती की सुलगती छाती से बेचैन शरारे पूछते हैं
तुम लोग जिन्हें अपना न सके वो ख़ून के धारे पूछते हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
क़ल्ब-ए-इंसाँ में दहकते हैं शरारे कितने
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
जागे हैं इफ़्लास के मारे उठे हैं बे-बस दुखियारे
सीनों में तूफ़ाँ का तलातुम आँखों में बिजली के शरारे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ख़ुद को बहलाना था आख़िर ख़ुद को बहलाता रहा
मैं ब-ईं सोज़-ए-दरूँ हँसता रहा गाता रहा
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
अब शरारे सोज़-ए-ग़म के दिल में रहते ही नहीं
अश्क अब पिछले पहर आँखों से बहते ही नहीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
क़ल्ब-ए-गीती मैं तबाही के शरारे भर दें
ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र को ईमान नहीं कहते हैं