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नज़्म
मैं कि मय-ख़ाना-ए-उल्फ़त का पुराना मय-ख़्वार
महफ़िल-ए-हुस्न का इक मुतरिब-ए-शीरीं-गुफ़्तार
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मस्त हूँ हुब्ब-ए-वतन से कोई मय-ख़्वार नहीं
मुझ को मग़रिब की नुमाइश से सरोकार नहीं
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
सोए भी ये मय-ख़्वार तो ले ले के तिरा नाम
चौंके जो कभी ख़्वाब से तुझ को ही पुकारा
सयय्द महमूद हसन क़ैसर अमरोही
नज़्म
मय-कदे में क्यों न ख़ाली जाए फिर वाइज़ की बात
जब भरे पहले से हर मय-ख़्वार के होते हैं कान