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नज़्म
ज़िंदगी की ओज-गाहों से उतर आते हैं हम
सोहबत-ए-मादर में तिफ़्ल-ए-सादा रह जाते हैं हम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तो ऐसे लगता था जैसे दिल में उतर रही हो
कुछ इस तयक़्क़ुन से बात करती थी जैसे दुनिया