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नज़्म
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स ओ ख़ाक तले
खिल रहे हैं तिरे पहलू के समन और गुलाब
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
जिस की मेहनत का अरक़ तय्यार करता है शराब
उड़ के जिस का रंग बिन जाता है जाँ-परवर गुलाब
जोश मलीहाबादी
नज़्म
कहीं कहीं इस काली सिल पर कोई सफ़ेद गुलाब
यूँ बे-ताब पड़ा था जैसे अंधी आँख का ख़्वाब
अहमद फ़राज़
नज़्म
कितने माथों के अभी सर्द हैं रंगीन गुलाब
गर्द अफ़्शाँ हैं अभी गेसू-ए-पुर-ख़म कितने