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नज़्म
शीशों के पीछे अफ़्सुर्दा शमएँ अश्क बहाती हैं
दस्त-ए-तलब चोरों को तारीकी में राह दिखाता है
बलराज कोमल
नज़्म
हम कि हैं कब से दर-ए-उम्मीद के दरयूज़ा-गर
ये घड़ी गुज़री तो फिर दस्त-ए-तलब फैलाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जो कल ख़ाली था वो दस्त-ए-तलब है आज भी ख़ाली
लबों पर लुत्फ़-ए-अंदाम-ए-निहाँ की अन-सुनी गाली
बलराज कोमल
नज़्म
सरज़मीन-ए-हिन्द को जन्नत बनाने के लिए
कैसे कैसे दस्त-ओ-बाज़ू के शजर जाते रहे
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
तुम तही दस्त-ए-तलब फैलाए झोली वा किए जब
उस के दरवाज़े पे जाते हो तो अपना फ़र्ज़ समझो