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नज़्म
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
रक़ीब हो तो किस लिए तिरी ख़ुद-आगही की बे-रिया नशात-ऐ-नाब का
जो सद-नवा ओ यक-नवा खिराम-ऐ-सुब्ह की तरह
नून मीम राशिद
नज़्म
आज हैं जो हुक्मराँ उन से बढ़ के ख़ौफ़नाक उन के सब रक़ीब हैं
दनदना रहे हैं जो ले के हाथ में छुरा
फ़हमीदा रियाज़
नज़्म
कोई दौलत-मंद इंसाँ हो कि हो कोई ग़रीब
कोई रिश्ते-दार हम-साया हो या कोई रक़ीब
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
नज़्म
बाम-दर-बाम थी बे-मेहर निगाहों की सलीब
हर झरोके में थी इक शाम मह-ओ-ख़ुर की रक़ीब