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नज़्म
वो इक अंदोह था तारीख़ का अंदोह-ए-सोज़िंदा
वो नामों का दरख़्त-ए-ज़र्द था और उस की शाख़ों को
जौन एलिया
नज़्म
हवा में तैरता ख़्वाबों में बादल की तरह उड़ता
परिंदों की तरह शाख़ों में छुप कर झूलता मुड़ता
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
ये शाख़-सार के झूलों में पेंग पड़ते हुए
ये लाखों पत्तियों का नाचना ये रक़्स-ए-नबात
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
जहाँ एक चेहरा दरख़्तों की शाख़ों के मानिंद
इक और चेहरे पे झुक कर हर इंसान के सीने में
नून मीम राशिद
नज़्म
'अहिल्याबाई' 'दमन' 'पदमिनी' ओ 'रज़िया' ने
यहीं के पेड़ों की शाख़ों में डाले थे झूले
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
ख़ुदा करे तुम्हारी शाख़ों से एक झोंपड़ी बनाई जाए
बाज़ुओं के घेरे में न आने वाले तुम्हारे