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नज़्म
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ऐ वतन जोश है फिर क़ुव्वत-ए-ईमानी में
ख़ौफ़ क्या दिल को सफ़ीना है जो तुग़्यानी में
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मसर्रत के जवाँ मल्लाह कश्ती ले के निकले हैं
ग़मों के ना-ख़ुदाओं का सफ़ीना डगमगाता है