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नज़्म
कलमा-ए-हक़ कहा
मक़्तलों क़ैद-ख़ानों सलीबों में बहता लहू उन के होने का ऐलान करता रहा
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
ये शहीद अपनी सलीबों से पलट आते हैं दिल में हर शाम
सुब्ह होती है मगर रात की ज़ंजीर कहाँ कटती है
वहीद अख़्तर
नज़्म
और पलकों की सलीबों पे वो गुज़रे हुए दिन
जैसे खंडरों की फ़सीलों पे टंगा हो इतिहास