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नज़्म
जिलौ में इन के वो सैलाब-ए-किशत-ओ-ख़ूँ होगा
लरज़ उठेंगी हिमाला की चोटियाँ इक दिन
मसूद अख़्तर जमाल
नज़्म
ये तरह्हुम से न देखेंगे किसी की जानिब
इन की तोपों के दहन कर दो उन्ही की जानिब
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
आँख है और बारिश-ए-सैलाब-ए-ख़ूँ तेरे बग़ैर
आ कि रुस्वा है मिरा हाल-ए-ज़बूँ तेरे बग़ैर
जौहर निज़ामी
नज़्म
फूट निकला दर-ओ-दीवार से सैलाब-ए-नशात
अल्लाह अल्लाह मिरा कैफ़-ए-नज़र आज की रात
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मुश्तइल, बे-बाक मज़दूरों का सैलाब-ए-अज़ीम!
अर्ज़-ए-मश्रिक, एक मुबहम ख़ौफ़ से लर्ज़ां हूँ मैं