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नज़्म
मोड़ ओझल हुआ नज़रों से तो फिर राह वही लोग वही
सिर्फ़ वो चेहरा वो आँखें वो ख़त-ओ-ख़ाल न थे
वहीद अख़्तर
नज़्म
ख़ार-ओ-ख़स के झोंपड़े मिट्टी के बोसीदा मकाँ
जैसे अंधों के इशारे जैसे गूँगों की ज़बाँ