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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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नुक़ूश

MORE BYप्रेम वारबर्टनी

    कच्ची दीवार से गिरती हुई मिट्टी की तरह

    काँप काँप उठता है बर्बाद-ए-मोहब्बत का वजूद

    हसरतें सूत के धागों की तरह नाज़ुक हैं

    दर्द की कौड़ियाँ किस तरह बंधेंगी इन में

    कौन घुटनों में लिए सर को अकेला तन्हा

    रोज़ रोता है मुरादों के हसीं मंडप में

    कितनी वीरान है उजड़े हुए ख़्वाबों की मुंडेर

    भूली-बिसरी हुई यादों के पपीहे चुप हैं

    हाए क्या शाम थी वो शाम वो देहात की शाम

    मेरी आँखों में धनक झूल गई पनघट पर

    और जब झूम के अलग़ूज़ा उठाया मैं ने

    चाँदनी अपना घड़ा भूल गई पनघट पर

    नींद के नश्शे में लहराने लगीं मटियारें

    अपनी ही बाँहों में बिल खाने लगीं मटियारें

    मेरे अलग़ूज़े की हर तान से पिघला तिरा रूप

    मेरे हर गीत से बरसी कभी छाँव कभी धूप

    कौन बरसों की बुझी राख कुरेदे दोस्त

    गाँव से दूर किसी अजनबी रह-रव की तरह

    शब की तन्हाई के जंगल में घिरा बैठा हूँ

    दिल में ज़ख़्मों के सुलगते हुए कुछ नक़्श लिए

    एक धुँदला सा तसव्वुर है किसी सपने का

    वर्ना हर लम्हा-ए-सय्याल मुझे याद नहीं

    तेरी सूरत तो बहुत देर हुई भूल गई

    अब तो अपने भी ख़त-ओ-ख़ाल मुझे याद नहीं

    स्रोत :
    • पुस्तक : Khushbu Ka Khwab (पृष्ठ 118)
    • रचनाकार : Prem Warbartani
    • प्रकाशन : Miss V. D. Kakkad (1976)
    • संस्करण : 1976

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