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नज़्म
सब के लिए ना-पसंदीदा उड़ती मक्खी
कितनी आज़ादी से मेरे मुँह और मेरे हाथों पर बैठती है
किश्वर नाहीद
नज़्म
यूँही इस हैरत-ए-हस्ती की पनाहों में कहीं
ज़िंदगी सब के लिए अपने हुनर खोलती है